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या मौला रात हो गई______
-अनम इब्राहीम--
या मौला रात हो गई दिन भर का शोर शराबा सन्नाटे में तब्दील होने लगा शहर के बादशाहों ओर बाशिंदो ने अपने अपने दरवाजे बंद कर लिये और हर शख़्स
अपने महबूब से रिश्तों के साथ बिस्तर में चला गया तारें टिमटिमाने लगे और चाँद भी अब आसमान में तैरता हुआ बार बार इस अंधेरें में डूबी दुनिया को घुर रहा है और मैं अनम तनहा तनहाईयों में सिमटा हुआ लीहाफ़ से अपने बदन को छुपा नींद आने का इन्तेजार कर रहा हूँ। नींद के आने का तो कहीं दूर से दूर तक नामोनिशां नजर नही आता बल्कि बिन बुलाए मेहमान की तरह सोच की सलाखें चिंता के शोलोँ में तपकर सुर्क लाल मेरे दिलों दिमाग में धस्ते चले जा रही है हजारों सवाल एक साथ मेरे दिल में उठ कर मुझे बेकरार कर रहे है केसी है ये पत्रकारिकता जो देश में कलम के दम से बेरोजगारी खत्म नही कर पाई?? जब की सालों से शासन के शासकों द्वारा योजनाओं का बीज देश के सभी अख़बारों टीवी एफएम पर विज्ञापनों की शकल में बोयें जा रहे है जिसका पौधा बेरोजगार जवानों ओर जरुरतमंदो की सोच में पनपता है और योजनाओ का लाभ लेने की कोशिशो में मुरझा भी जाता है। आज कल की मीडिया सत्ताधारी सरकार पक्ष विपक्षी राजनेतिक पार्टियों और फ़िल्मी सितारें विदेशीयों के कारोबार की खबरों ओर विज्ञापनों पर पूरी तरह आँखें जमाई बेठी है और खुद अपनी ही पिट के पीछे समाज में पनपरहे समस्याओं के सेलाब से बेखबर होने का ढोंग कर रही है। केसी है ये पत्रकारिकता की कलम की ताकत जो देश भर में करोडों भिक्षा मांगने वाले कमजौर बुजुर्ग व मासूम बच्चे और बेशुमार बेसहारा अपाहिजों को राहत नही पंहुचा पाई?? जब की इन किस्मत के मारों की तादाद देश के फुत्पात गली चोराहे और बाज़ारों में दिन दुगनी रात चोगनी होते जा रही है। एक नुमाईशी फ़िल्मी भांड की नंगी तस्वीर को बड़े बड़े अख़बार जगा देते है लेकिन जिस रास्तें से मीडिया के नुमाईंदे रोज एक ही मासूम बच्चे को भीख मांगते देखते है, एक ही बुड़े बदहाल इन्सान को एक ही दरख्त के निचे महीनो से देख रहे है उन के हक के लिये अखबार में जगह देने में मीडिया को क्यों कराहियत घिन आती है? आज देश भर में करोडो बचपन मासूमियत सा जहन लिये भीख मांगने की राह पर चल दिये है और ये बिना सरपरस्ती का बचपन नशे और अपराध की गहराई में डूब रहा है हजारो बूढ़ी जिन्दगी सड़कों के किनारे बिन आधारकार्ड बिन परिचयपत्र, राशनकार्ड के जिन्दगी बसर कर रही है। सत्ता के सौदागरों की नजरअंदाजगी तो समझ आती है क्यों की ये सब उसके वोट नही है लेकिन क्या मीडिया इन्हें भारतीयों में शुमार नही समझती? अनम तुम बेकार हो जिस कश्ती पर सवार हो उस के ही खिलाफ अल्फाज़ उगल रहे हो! दरअसल में जानता हूँ मीडिया का जहाज इन दिनों बरमुडा ट्रेंगल की दिशा पर जा रहा है। मैं क्या करूं अकेला चना भाड़ थोड़ी न फ़ोड़ता है, अनम की तो इन दिनों एसी हालत है मर्ज़ बड़ता गया जो जो दवा की मेने। ये रात भी नजाने मुझसे कोनसी दुश्मनी निकालती है एक ख्याल चिंता का देती है तो दूसरा हाथ में लेकर खड़े रहती है जेसे ही एक ख्याल रात की ख़ामोशी मेरे दिल में पैदा करने आती है मे डर से सहेम सा जाता हूँ। सुबह होने चली सोच का संघर्ष लगभग खत्म होने पर है। आसमान पर पसरे पड़े तारे सिमटने लगे ओर चाँद भी रात से पलायन करने लगा, रात भी अपनी ख़ामोशी से भरे सन्नाटे को समेट सिने से लगा जाते जाते मेरी आखों में आखें डाल जहरीली मुस्कराहट बिखेरते हुए मुझे कहते जा रही है अनम अभी खेल खत्म नही हुआ शाम ढलते ही में फिर लोट आउंगी। अँधेरे मैं लतपत रात सुबह की अंगडाईयाँ देख रात अपने बदन को झटककर अंधेरों का कालापन रौशनी के गहरेपन की खाई में गिरा रही है रात धीरेधीरे अंधेरे से जुदा होके अपनी हस्ती मिटाने चली है रात को पता है सुबह की बस्ती में ज़माने के मुल्क बसते है। उफ़ ये रात क्यों होती है।
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