السلام علیکم

मदरसे मज़हब-ए-ईस्लाम के वो कारख़ाने है जिस में अल्लाह के हुक्म और नबी (सल्ल)के तरीकों का इल्म क़ुरआन और हदीस की रौशनी में तलबाओं के दिलो में उतरता है। तमाम मदरसों को अल्लाह आप जैसे ईमान वालो की मदद व नुसरत से ही चलाता है। जरूरतमंद मदरसे मदद लेने के लिए और जरूरतमंद मदरसो की मदद करने के लिए राफ़ता क़ायम करे!!!

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उत्तर प्रदेश-अन्य


जंग-ए-आज़ादी में दारुल उलूम देवबंद का खास क़िरदार था देवबन्द का नाम सुन कांपते थे गोरे!!
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जंग-ए-आज़ादी में दारुल उलूम देवबंद का खास क़िरदार था देवबन्द का नाम सुन कांपते थे गोरे!!
क्या आप को पता है दारुल उलूम देवबंद का इतिहास ?
हिंदुस्तानी मदरसों को भले ही भहकावे में हिक़ारत भरी नज़र से देखलो लेकिन ये याद रखना हिंदुस्तानी मदरसो की वफ़ादारी और कुर्बानियों को नज़रअंदाज़ नही किया जा सकता।  मुल्क़ की आज़ादी और मानवता के लिए हर वक़्त कुर्बान होने वाले हिंदुस्तानी मदरसे मुल्क़ में मासूमियत के मरकज़ हैं जिनमे से ख़ासकर दारुल उलूम देवबंद है 
विश्वविख्यात शैक्षिक संस्था जिसका देश की आज़ादी में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है,आजकल मीडिया में दारुल उलूम को लेकर सुर्खियाँ बनती है कभी इसी देवबन्द के नाम को सुनकर अँग्रेज़ थर्राया करते थे,इसी कारण देवबन्द के कई महापुरुषों को अंग्रेजों ने काला पानी भेजकर हौसला तोड़ने का काम किया था।
क्राँति के साथ साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी दुनिया देवबन्द का नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है,देवबन्द की दारुल इफ्ता के फतवों को मुसलमान आखरी फैसला समझते हैं और उसके मुताबिक अमल करते हैं,लेकिन मीडिया दारुल उलूम के फतवों को लेकर सुर्खियाँ बनाती है।
दारुल उलूम देवबंद आज़ादी की जंग से लेकर पाकिस्तान बनने के विरोध तक शायद ही देश की राजनीति से जुड़ा कोई मौक़ा हो जब देवबन्द ने खुल कर अपनी राय न जाहिर की हो. ये और बात है कि कई बार उसकी राय और नसीहतें सवालों के घेरे में आ जाती हैं।
देवबन्द की देश विदेश में पहचान दारुल उलूम से है, पिछले डेढ़ सौ साल में दारुल उलूम दुनिया भर में इस्लामी शिक्षा के सबसे बड़े केन्द्रों में से एक बनकर उभरा है. देवबंद शहर और दारुल उलूम का चोली-दामन का साथ है. ये दोनों नाम एक ही सांस में लिए जाते हैं।
दारुल उलूम की स्थापना 1866 में हुई थी. इस मदरसे की स्थापना की कहानी अंग्रेजों के खिलाफ़ 1857 में हुई आज़ादी की पहली लड़ाई से जुड़ी है. अंग्रेजों के ज़ुल्म से बचने में कामयाब हुए मुस्लिम विद्वानों ने इस्लामी शिक्षा के लिए इस मदरसे की स्थापना की थी।
दारुल उलूम देवबंद हमेशा जिस सम्बन्ध में भी उससे फ़तवा पूछा जाता है उसके बारे में बेबाकी के साथ रहनुमाई करती है लेकिन मीडिया हमेशा गलत मतलब निकालती है,और फतवों के नाम किचड़ उठाने का काम करती है।
पिछले दिनों अधिवक्ता राघवेंद्र कंसल ने दारुल उलूम देवबंद से ऑनलाइन सवाल कर पूछा था कि ‘क्या किसी हिंदू प्रत्याशी द्वारा मुस्लिम समाज के लोगों में चुनाव के दौरान बांटी गई जानमाज (मुसल्ले) पर नमाज अदा की जा सकती है?
 इस सवाल के जवाब में दारुल उलूम देवबंद के इफ्ता विभाग ने फतवा संख्या 320/276 में जवाब देते हुए कहा कि चुनाव के दौरान बांटी गई चीजों का उद्देश्य सिर्फ वोट हासिल करना होता है। चुनाव के दौरान बांटे जाने वाले तोहफों से बचना चाहिए। इतना ही नहीं यदि किसी व्यक्ति द्वारा इसी उद्देश्य से जानमाज (मुसल्ला) बांटा गया है तो उस जानमाज पर भी नमाज पढ़ना गलत है, इसलिए चुनाव के दौरान मिली जनमाज पर नमाज पढ़ने से बचना चाहिए। 
दारुल उलूम के फतवा विभाग की खंडपीठ में शामिल मुफ्ती वकार अली, मुफ्ती हबीबुर्हमान, मुफ्ती मोहम्मद हसन ने 21 दिसंबर को जारी फतवे में कहा कि उक्त जानमाज (मुसल्ला) पर नमाज पढ़ने से बचना चाहिए। दारुल उलूम द्वारा जारी फतवे पर अरशद फारुकी ने दारुल उलूम के फतवे को सही बताते हुए कहा कि इस्लाम में हर काम का दारोमदार उसकी नियत पर शामिल होता है। उन्होंने कहा कि चुनाव में जो भी तोहफे बांटे जाते हैं, उनका मकसद वोट हासिल करना होता है और यह तोहफे रिश्वत के समान होते हैं। इसलिए ऐसी चीजों के इस्तेमाल से परहेज करना चाहिए।





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